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वन॑स्पते रश॒नया॑ नि॒यूया॑ दे॒वानां॒ पाथ॒ उप॑ वक्षि वि॒द्वान् । स्वदा॑ति दे॒वः कृ॒णव॑द्ध॒वींष्यव॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी हवं॑ मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vanaspate raśanayā niyūyā devānām pātha upa vakṣi vidvān | svadāti devaḥ kṛṇavad dhavīṁṣy avatāṁ dyāvāpṛthivī havam me ||

पद पाठ

वन॑स्पते । र॒श॒नया॑ । नि॒ऽयूय॑ । दे॒वाना॑म् । पाथः॑ । उप॑ । व॒क्षि॒ । वि॒द्वान् । स्वदा॑ति । दे॒वः । कृ॒णव॑त् । ह॒वींषि॑ । अव॑ताम् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । हव॑म् । मे॒ ॥ १०.७०.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:70» मन्त्र:10 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे वननीय सुख विशेष के रक्षक परमात्मन् ! तू (रशनया) व्यापनशक्ति से (नियूय) उसे नियन्त्रित कर (देवानां पाथः) विद्वानों के भोग को (विद्वान्-उपवक्षि) जानता हुआ प्राप्त कराता है (देवः-हवींषि कृणवत्) वह परमात्मदेव अन्न आदि को उत्पन्न करता है (स्वदाति) और जीवों को स्वाद से खिलाता है (द्यावापृथिवी मे हवम्-अवताम्) द्यावापृथिवीमय जगत् मेरे भोज्य की रक्षा करे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा प्राणियों के भोग की रक्षा करता है। अपनी व्यापनशक्ति से उसे नियन्त्रित करके विद्वानों तक पहुँचाता है और प्राणियों को भोग्यपदार्थ प्रदान करता है। अन्नादि उत्पन्न करके खिलाता है ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे वननीय सुखविशेषस्य पालक ! परमात्मन् ! त्वं (रशनया) व्यापनशक्त्या (नियूय) तन्नियन्त्रय तत्र (देवानां पाथः-विद्वान्-उपवक्षि) विदुषां भोगं जानन्-उपवहसि प्रापयसि (देवः-हवींषि कृणवत्) स परमात्मदेवः, अन्नादीनि-उत्पादयत् (स्वदाति) जीवान् स्वादयति भोजयति (द्यावापृथिवी मे हवम्-अवताम्) द्यावापृथिवीमयं जगत् खलु मे तद् भोज्यं रक्षतु ॥१०॥